श्रीमद्भागवत गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवदगीता

श्रीमद्भागवत गीता श्लोक-
प्रकृते: क्रियमाणनि गुणै: कर्माणि सर्वश:।

अहङ्कारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।27।।

अनुवाद तथा तात्पर्य : जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कार्यों की कर्ता मान बैठती है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं। दो व्यक्ति जिनमें से एक कृष्ण भावनाभावित है और दूसरा भौतिक चेतना वाला है, समान स्तर पर कार्य करते हुए समान पद पर प्रतीत हो सकते हैं, किंतु उनके पदों में आकाश-पाताल का अंतर रहता है। भौतिक चेतना वाला व्यक्ति अहंकार के कारण आश्वस्त रहता है कि वही सभी वस्तुओं का कर्ता है। वह यह नहीं जानता कि शरीर की रचना प्रकृति द्वारा हुई है, जो परमेश्वर की अध्यक्षता में कार्य करती है।

भौतिकतावादी व्यक्ति नहीं जानता कि वह कृष्ण के अधीन है। ऐसा व्यक्ति हर कार्य को स्वतंत्र रूप से करने का श्रेय लेना चाहता है और यही है उसके अज्ञान का लक्षण। उसे यह ज्ञात नहीं कि उसके इस स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर की रचना प्रकृति द्वारा भगवान की अध्यक्षता में की गई है, अत: उसके सारे शारीरिक तथा मानसिक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की सेवा में तत्पर होने चाहिएं। अज्ञानी व्यक्ति भूल जाता है कि भगवान ही शरीर की इंद्रियों के स्वामी हैं। इंद्रियतृप्ति के लिए इंद्रियों का उपयोग करते रहने से वह अहंकार के कारण कृष्ण के साथ अपने संबंध भूल जाता है।